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कृष्ण जन्मभूमि मथुरा मथुरा का प्राचीन इतिहास है। मान्यता यह है कि त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अनुज शत्रुघ्न ने लवणासुर नामक राक्षस का वध कर इसकी स्थापना की थी। द्वापर युग में यहां कृष्ण के जन्म लेने के कारण इस नगर की महिमा और अधिक बढ़ गई है। यहां के मल्लपुरा क्षेत्र के कटरा केशव देव स्थित राजा कंस के कारागार में लगभग पांच हजार दो सौ वर्ष पूर्व भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में रात्रि के ठीक 12 बजे कृष्ण ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया था। यह स्थान उनके जन्म के कारण अत्यंत पवित्र माना जाता है
स्मरण करें श्रीकृष्ण के मनोहारी रूप को। कौस्तुभादि आभूषण। गले में पुष्पहार। पीताम्बरादि वस्त्र। किरीट में मयूर पंख। अधरों पर मुरली। कला का समग्र बोध लिए हैं श्रीकृष्ण का यह रूप। इसीलिए तो यह मन में घर करता है। चाहकर भी इस मनोहारी छवि से हम कहां मुक्त हो पाते हैं! श्रीकृष्ण की छवि में प्रेम झर-झर झरता है। नेह में भीगता है मन। उन्हें पूजने का नहीं प्रेम करने का करता है मन। बस प्रेम करने का। शायद इसलिए कि श्रीकृष्ण न भूत, न भविष्य, न वर्तमान है। वे तो बस हैं। काल का अविरल प्रवाह है उनका होना। मेघ वर्ण। सांवले। सलोने। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार श्ृंगार का रंग भी सांवला है। और श्रीकृष्ण तो श्ृंगार के ही पर्याय हैं।
। कृष्ण के दोनों रूप में सारे विश्व में प्रसिद्ध हैं- बाल लीला करने वाले माखन चोर और गाय चराने वाले तथा रास लीला करने वाले मधुर नायक मनमोहन, ब्रजराज, गोपिका रमण कृष्ण पांच हजार साल से मधुर भक्ति के नायक बने हुए हैं। कोई भी गुजरात में जाकर देख सकता है वह स्थान, जहां व्याध का बाण पैर में लगने से कृष्ण ने ईहलीला का संवरण किया था। उसी दिन से कलियुग लगा था, यह हमारी मान्यता है और कलियुग को लगे 5114 वर्ष बीत रहे हैं आज। फिर भी उनकी स्मृति जरा भी धुंधली नहीं हुई है, क्योंकि वे प्रतिवर्ष जन्मते हैं। यही है रहस्य घर-घर में कृष्ण के प्रकट होने का और कृष्ण को पूर्ण पुरूष मानने का।
यह श्रीकृष्ण के जीवन की विडंबना ही है कि जन्म के समय उन्हें विष दिया, तो एक स्त्री ने और मृत्यु का कारण भी स्त्री ही बनी। जन्म लेते ही पूतना ने विष दिया। गांधारी ने उनके सपूर्ण परिजनों के सत्यानाश का शाप दिया। फिर भी स्त्री सम्मान के लिए ही ता उम्र वे लड़ते रहे। द्रोपदी का चीर बढ़ाया। आदिवासी कन्या जाम्बवती से विवाह किया। नारकासुर की नारकीय कैद से छुड़ाकर उन çस्त्रयों को अपनी पत्नी बनने का अधिकार दिया, जिन्हें समाज ने कुलटा, पतिता कहा। यह श्रीकृष्ण ही हैं, जिन्होंने राजसूय यज्ञ में आमंत्रितो के झूठे पात्र उठाए। सारथि दारूक, निर्धन सुदामा को मित्र का मान दिया। श्रीकृष्ण! माने युगंधर। युग प्रवर्तक। आखिर यूं ही तो नहीं कहा गया है, श्रीकृष्ण यदि भारतीय जीवन दर्शन में न रहे तो फिर बचेगा ही क्या! न साहित्य, न संगीत और न जीवन की उत्सवधर्मिता। जीवन जीने की कला के उत्तम पुरूष हंै भगवान श्रीकृष्ण!
गोकुल में रास रचाने वाले कृष्ण महाभारत युद्ध के कर्णधार बनकर जो संदेश देते हैं, वह आज भी प्रासंगिक है। वे युद्ध के पक्षपाती हरगिज नहीं हैं। इसीलिए वे शस्त्र नहीं उठाने की प्रतिज्ञा करते हैं, वे बिलकुल नहीं लड़ते हैं, केवल रथ चलाते हैं। उनकी सर्वोत्कृष्ट भूमिका है शांति दूत की। आपको मालूम ही होगा कि पांडवों के जुए में हार जाने के बाद और वनवास पूरा कर लेने के बाद वे उनके दूत बनकर दुर्योधन के पास जाते हैं और यह कहते हैं कि हम युद्ध बिलकुल नहीं चाहते हैं, युद्ध देशभर का सत्यानाश कर देता है। हम शांति चाहते हैं, अत: पांडवों को केवल पांच गांव दे दो। वे शांत रहेंगे। शांतिदूत कृष्ण की इतनी सी बात भी नहीं मानी जाती। शांति के सारे प्रयास जब विफल हो जाते हैं, तो युद्ध ही एकमात्र उपाय बचा रहता है। होता भी यही है। महाभारत का भयानक युद्ध होता है, जिसका परिणाम आप जानते हैं।
अवांछित व्यक्तियों का नाश अवश्य होता है, किंतु समस्या का समाधान और निर्णय युद्ध ही करता है। कृष्ण का यह संदेश इतना प्रासंगिक है कि शांति का प्रत्येक उपाय करना आवश्यक है, किंतु यदि वे उपाय सफल न हों तो युद्ध ही निर्णायक होता है। समस्या का अंतिम हल उसी से होता है। देश की ज्वलंत समस्याओं का समाधान हम कृष्ण की राह पर ही चलकर कर सकते हंै।
कृष्णस्तु भगवान स्वयं।….
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