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भारत का राज-प्रबंधन धर्मनिरपेक्ष है. संविधान में इसकी जो व्यवस्था की गयी है उसका मकसद आईने की तरह साफ है कि सरकारें शासन व्यवस्था के वक़्त किसी धर्म विशेष से जुड़ने के बजाय सबको सामान मानेंगी. सभी धर्मों से जुड़े लोगों को यहाँ अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप जीने की आजादी है. हिमालय की उत्तंग बर्फीली चोटियों से रेगिस्तानी इलाकों को स्पर्श करते हुए तीन छोरों में सागरों को छूती भौगोलिक सीमाओं और सामाजिक विविधतातों वाले हमारे देश में धार्मिक आस्था सदियों से चरम पर रही है.यहाँ विभिन्न धर्मों से जुड़े लोगों के अपने अनेक आस्था केंद्र है.कोई मंदिर जाता है तो कोई मस्जिद ,कोई चर्च तो कोई गुरूद्वारे में. कभी कुम्भ में मानव सैलाब तो कभी हज़ में. सबके अपने अलग तरीकें हैं भक्ति को सम्पूर्ण मानने के. पिछले दिनों नवरात्रि पर्व पर पूरा देश माता की भक्ति में लीन था. कोलकाता की कालीबाड़ी से लेकर जम्मू की वैष्णव देवी तक असंख्य तीर्थयात्रियों के जत्थे थे. तभी मध्य प्रदेश के दतिया जिले के रतनगढ़ माता मंदिर में मची भगदड़ में सैकड़ों लोगों ने अपनी जान गंवा दी। भगदड़ का कारण पूल टूटने की अफवाह बताया गया था .सेकड़ों लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे थे और उनमे से काफी श्रधालुओं को मौत के मुंह में समाना पड़ा था . यह सच है कि श्रृद्धालु स्वयं ही ऐसे तीर्थस्थलों पर जातें हैं जो प्राचीन मान्यताओं के आधार पर उनकी आस्था और भक्ति के केंद्र होते हैं. अब इसे अंधभक्ति या आस्था का प्रदर्शन कहकर कोई भी सरकार अपनी जिम्मेवारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकती. मनो-वैज्ञानिक तथ्य है कि आस्था, दिल और दिमाग की तात्कालिक सोच पर निर्भर करती है. सदियों से यह मान्यता है कि भक्त और भगवान के बीच की दूरी ऐसे ही तीर्थस्थलों पर जाकर खत्म हो जाती है. तीर्थस्थलों पर लोगों को आने से रोका नहीं जा सकता. आस्था से जुड़े होने के अलावा यह संविधान प्रदत्त अधिकार भी है. अब जब श्रद्धालुओं को रोका नहीं जा सकता तब दुर्घटनाओं को रोकने का एकमात्र तरीका है भीड़ का सुचारु प्रबंधन. और यह ड्यूटी सरकारों की है और स्थानीय प्रशासन की. मसलन मध्य प्रदेश के दतिया में यदि भीड़ का उचित प्रबंधन किया गया होता और श्रद्धालुओं को पंक्ति-बद्ध करके पुल पर जाने दिया गया होता तब ऐसी घटना होती ही नहीं. अक्सर ऐसी दुर्घटनाओं को नियति से जोड़कर देखा जाता है जो कि आंकलन का अनुचित तरीका है. भक्त की भावना को आस्था का अतिरेक कहना बिलकुल सही नहीं है। भक्त और भगवान के बीच सीधे सम्बन्ध की धारणा तो सर्वबभौमिक है. ऐसे में आस्था पर रोक लगाना अनुचित होने के साथ असंवैधानिक भी होगा. इन दुर्घटनाओं में हजारों निर्दोषों की मौत का कारण आस्था नही बल्कि हमेशा कुप्रबंधन और आपराधिक लापरवाही होती है. भारत में ऐसे धार्मिक समागम सदियों से होते चले आ रहे हैं. पौराणिक ग्रंथों और कथाओं में भी इनके अनगिनत विवरण मिलते हैं मगर आश्चर्य है कि भगदड़ या दुर्घटनाओं की ब्योरे नहीं मिलते. इसका अर्थ है कि प्राचीन काल में ऐसे जन-सैलाबों को सुरक्षित रखने का कोई ‘मेकेनिज्म’ रहा होगा जो अब नदारत है. वजह? स्पष्ट है सरकारी और प्रशासनिक लापरवाही. राज-प्रबंधन में “धर्मनिरपेक्षता” की व्यवस्था संविधान में इसीलिए की गयी है कि सभी धर्मों को मानने वालों को उनकी आस्था के अनुरूप जीने की आजादी मिले.यह बात सरकारों को समझनी चाहिए.आधुनिक युग में जब तीन राज्यों में दस लाख लोगों को सुरक्षित स्थानो पर पहुंचाकर भयानक समुद्री तूफान से बचा जा सकता है तब धार्मिक समागमों को सुरक्षित क्यों नहीं रखा जा सकता?
त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ..धन्यवाद
आरती शर्मा
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